उत्तराखंड
उत्तराखंडः सीमांत के इन गांवों में नहीं मनाई जाती होली, आखिर क्यों? क्या है मिथक….
होली का त्योहार पूरे उत्तर भारत में धूमधाम से मनाया जाता है। वहीं देवभूमि में भी होली का उल्लास शुरू हो गया है। बैठकी होली के बाद अब खड़ी होली के साथ ही हर तरफ रंग-गुलाल के बीच ढोल-मंजीरे की थाप सुनाई देनी शुरू हो गई है। लेकिन क्या आप जानते हैं उत्तराखंड में कई गांव ऐसे भी हैं जहां होली नहीं मनाई जाती है। सीमांत पिथौरागढ़ जिले की तीन तहसीलों धारचूला, मुनस्यारी और डीडीहाट के कई गांवों में होली मनाना अपशकुन माना जाता है। इन गांवों में आज भी होली का उल्लास गायब रहता है। यहां के लोग अनहोनी की आशंका में होली खेलने और मनाने से परहेज करते हैं।
गांव में पसरा रहता है सन्नाटा
कुमाऊं की बैठकी और खड़ी होली देश-दुनियाभर में जानी जाती है। रंग का पर्व यहां धूमधाम से मनाया जाता है। लेकिन कुमाऊं के ही पिथौरागढ़ जिले में चीन और नेपाल सीमा से लगी तीन तहसीलों में होली का उल्लास गायब रहता है। पूर्वजों के समय से चला आ रहा यह मिथक आज भी नहीं टूटा है। होली के दिनों में जहां पूरे कुमाऊं में उत्साह चरम पर होता है वहीं इन गांवों में सन्नाटा पसरा रहता है। तहसीलों में होली न मनाने के कारण भी अलग-अलग हैं। मुनस्यारी में होली नहीं मनाने का कारण इस दिन होली मनाने पर किसी अनहोनी की आशंका रहती है। डीडीहाट के दूनाकोट क्षेत्र में अपशकुन तो धारचूला के गांवों में छिपलाकेदार की पूजा करने वाले होली नहीं मनाते हैं।
धारचूला में होली न मनान की परंपरा
धारचूला के रांथी गांव बुजुर्गों का कहना है कि उन्होंने अपने जीवन काल में गांव में कभी होली मनाते हुए किसी को नहीं देखा है। रांथी, जुम्मा, खेला, खेत, स्यांकुरी, गर्गुवा, जम्कू, गलाती सहित अन्य गांव शिव के पावन स्थल छिपलाकेदार में स्थित हैं। पूर्वजों के अनुसार शिव की भूमि पर रंगों का प्रचलन नहीं होता है। यह सब पूर्वजों ने ही हमें बताया था और हम अपने बच्चों को बताते आए हैं। इस परंपरा का आज तक पालन किया जा रहा है।
मुनस्यारी में इसलिए होली नहीं मनाते
मुनस्यारी के चौना, पापड़ी, मालूपाती, हरकोट, मल्ला घोरपट्टा, तल्ला घोरपट्टा, माणीटुंडी, पैकुटी, फाफा, वादनी सहित कई गांवों में होली नहीं मनाई जाती है। चौना के बुजुर्ग बताते हैं कि पूर्वजों के अनुसार एक बार होल्यार देवी के प्रसिद्ध भराड़ी मंदिर में होली खेलने जा रहे थे। तब सांपों ने उनका रास्ता रोक दिया। इसके बाद जो भी होली का महंत बनता था या फिर होली गाता था तो उसके परिवार में कुछ न कुछ अनहोनी हो जाती थी। जिसे देखते हुए होली मनाना बंद हो गया। पीढियां गुजर गई परंतु होली नहीं मनाई गई।
डीडीहाट में न मनाने का कारण
डीडीहाट के दूनकोट क्षेत्र के ग्रामीण बताते हैं कि अतीत में गांवों में होली मनाने पर कई प्रकार के अपशकुन हुए। पूर्वजों ने उन अपशकुनों को होली से जोड़कर देखा। तब से होली न मनाना परंपरा की तरह हो गया। आज भी ग्रामीण आसपास के गांवों में मनाई जाने वाली होली में शामिल तक नहीं होते हैं।
रुद्रप्रयाग के इन क्षेत्रों में भी नहीं मनाई जाती होली
रुद्रप्रयाग के अगस्त्यमुनि ब्लॉक की तल्ला नागपुर पट्टी के क्वीली, कुरझण और जौंदला गांव इस उत्साह और हलचल से कोसों दूर हैं। यहां न कोई होल्यार आता है और न ग्रामीण एक-दूसरे को रंग लगाते हैं। दस पांच साल से नहीं बल्कि पूरे 373 सालों से यहां होली कभी नहीं मनाई गई। तीन सदी पहले जब ये गांव यहां बसे थे, तबसे आज तक होली न मनाने के पीछे कारण यह नहीं है कि इन्हें होली मनाना पसंद नहीं, लेकिन एक मान्यता, एक विश्वास ने पीढ़ी दर पीढ़ी रोके रखा है। ऐसा नहीं है कि यहां के लोगों को होली मनाने से कोई चिढ़ हो, बल्कि यहां के बच्चे और कुछ महिलाएं जताती हैं कि आसपास के गांवों में होली की धम देखकर मन तो उनका भी करता है, लेकिन परंपरा के आगे उनका बस नहीं चलता।
क्या है होली न खेलने की मान्यता?
रुद्रप्रयाग ज़िला मुख्यालय से करीब 20 किमी दूर बसे क्वीली, कुरझण और जौंदला के ग्रामीण मानते हैं कि जम्मू-कश्मीर से कुछ पुरोहित परिवार अपने यजमान और काश्तकारों के साथ करीब 372 वर्ष पहले यहां आकर बस गए थे। ये लोग, तब अपनी इष्टदेवी मां त्रिपुरा सुंदरी की मूर्ति भी लाए थे और होली न खेलने का विश्वास इन्हीं देवी के साथ जुड़ा है। मां त्रिपुरा सुंदरी को वैष्णो देवी की बहन बताते हुए ग्रामीण कहते हैं कि उनकी कुलदेवी को होली का हुड़दंग और रंग पसंद नहीं हैं इसलिए वो सदियों से होली का त्योहार नहीं मनाते। कुछ लोग बताते हैं कि डेढ़ सौ साल पहले इन गांवों में होली खेली गई, तब यहां हैज़ा फैल गया था। बीमारी से कई लोगों की मौत हो गई थी, तबसे आज तक गांवों में होली नहीं खेली गई।
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